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( ७३ ) दारा भायाँ कलत्रं जलं आपः । समभिरूढ नयो यथा गौः पशु: एवंभूतनयो यथा इंदतीति इन्द्रः ॥ इति नयभेदाः ॥
भापार्थ--शब्द, समाभिरूढ, एवंभूत, यह तीन ही नय शुद्ध पदार्थोंका ही स्वीकार करते हैं यथा शब्द नयके मतमें एकार्थी हो वा अनेकार्थी हो, शब्द शुद्ध होने चाहिये, जैसेकि- दारा, भार्या, कलत्र, अथवा जल, आप, यह सर्व शब्द एकार्थी पंचम नयके मतसे सिद्ध होते हैं अर्थात् शुद्ध शब्दोंका उच्चारण करना इस नयका मुख्य कर्तव्य है। ___ और समभिरूढ नय विशेष शुद्ध वस्तुपर ही स्थित है जैसोक गौ अथवा पशु । जो पदार्थ जिस गुणवाला है उसको वैसे ही मानना यह समभिरूढ नयका मत है तथा जिस पदार्थमें जिस वस्तुकी सत्ता है उसके गुण कार्य ठीक २ मानने वे ही समभिरूढ है । और एवंभूत नयके मतमें जो पदार्थ शुद्ध गुण कर्म स्वभावको प्राप्त हो गये हैं उसको उसी प्रकारसे मानना उसीका ही नाम एवंभूत नय है जैसेकि--इन्दतीति इन्द्रः अर्थात् ऐश्वर्य करके जो युक्त है वही इन्द्र है, यही एवंभूत नय है ।
॥ अथ सप्त नयोंका मुख्योदेश ॥ नैकं गलतीति निगमः निगमो विकल्पस्तत्र भवो