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( ४ ) जि-ऐसे धातु रखा है। फिर उणादि सूत्रसे जिन शब्द इस मकारसे वना, जैसे कि
इषिञ्जिदीकुष्य विभ्योनक् । उणादि प्रकरण पाद ३ सू० २॥
अथ उज्ज्वलदत्त टीका-इण्गतौ । पिञ्बंधने । जि जये। दीङ् क्षये । उप दाहे । अवर क्षणे । एभ्यो नक् स्यात् ॥ इनो. राज्ञिमभौसूर्ये ॥ इनः सूर्येनृपेपत्यौ । नान्ते ॥१॥ इति विश्वः॥ सह इनेन वर्तत इति सेना ॥ सेनयाभियात्यभिपेणयति ॥ सिनः काणः ॥ जिनो बुद्धः। जिनः स्यादतिद्धेऽपि बुद्धेचार्हति जित्वरे विश्वनान्त ॥ १ ॥ दीनोदुर्गतः ॥ उष्णमीपत्तप्तम् ॥ ज्वरत्वरेत्यूठ । ऊनमसम्पूर्णम् ॥ सर्वस्वे तु जनयतेख्नमिति साधितम् ॥ इतिवृत्ति ॥
इस सूत्रसे 'जि' धातुको नक् प्रत्यय हो गया तब जिन शब्द सिद्ध हुआ, अपितु हैमचन्द्राचार्य नाममाला वृत्तिमें लिखते हैं कि
जयत्यन्निनवतिरागद्वेषादिशत्रून् इति जिनः।। ___ इसमें यह वर्णन है कि जो विशेष करके रागद्वेषादि अं. रंग शत्रुओंको जीतता है वही जिन है, अर्थात् जिसने राग