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___ऽऽयत्यां शुभं विदधदेष न पक्षपातः ॥ ६१॥ ___ बड़ी पूजा से खल-दुष्ट मत्त होता है, और बडा दण्ड करनेसे कुलीन अच्छा मनुष्य उद्विग्न होता है और ऐसा करनेसे लोकयात्रा व्यवस्थिति में रह नहीं सकती, और उचित पूजा, दण्ड करनेसे यह पक्षपात नहीं कहलाता है। ___अब शास्त्रीजीने जो उपरोक्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष सृष्टिकर्ता के बारेमे दिखलाये है, वे सब मिथ्या प्रलाप है और ईश्वरको कलकित बनानेके उपाय है, देखिये-वीतराग ईश्वर इस जगतको किस लिये बनावेगा .
तथाहि-शशभृन्मौलेस्त्रैलोक्यघटने भवेत् । यथारुचिप्रवृत्तिः किम् १, कर्मतन्त्रतयाऽथवा ॥१॥ धर्माद्यर्थमथोद्दिश्य ?, यद्वा क्रीडाकुतूहलात् ।। निग्रहाऽनुग्रहाय वा ? सुखस्योत्पत्तयेऽथवा ॥२॥ यद्वा दुःखविनोदार्थम् ?, प्रत्यवायक्षयाय वा । भविष्यत्पत्यवायस्य परीहारकृते किमु ॥३॥ अपारकरुणापूरात् किं वा ?, किंवा स्वभावतः । एकादशैवमेते स्युः प्रकाराः परदुस्सहाः ॥ ४ ॥
अर्थात् क्या महादेवजी जो सृष्टि बनाते है सो अपनी यथारुचि बनाते है ? । या कर्म से परतन्त्र होकर बनाते है । वा अपने