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परन्तु महादेवजी तो जडरूप जो कर्मसमूह, उसके वश होकर कार्य करते है, तब भी स्वतन्त्र कहलाते है, यह स्वतन्त्रता दक्षिण देशकी हैं. मैं मी० गंगाधरजी से कहता हूँ की सखे ! उसका ही नाम स्वातन्त्र्य है कि जहा कोई की भी अपेक्षा न की जावे, और भी हमारे शाखीजी ईश्वर को कर्मपरतन्त्र न मानकर केवल सकर्मक आत्मा ही यह सब सृष्टिका प्रवाहरूप से रचयिता है, ऐसा माने तो कोई भी दूपण देखने नहीं आता है, फिर क्यों ईश्वर को बीच में अन्तर्ग कि तरह गाग्रीजी मानते है ' यदि शास्त्रीजी इस दलील को पेश करें, की कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा एक भी सपूर्ण नियमित कार्य नहीं कर सकता है, तो यह बात सविस्तर सयुक्तिक आगे राण्डित की जावेगी इसलिये पाठक महाशय सावधानता से देख लें, और भी पटसन चेतन नियमित कार्य नहि करसकता है, यह नात कहना सर्व वर्तमान व्यवहार का अपलाप करना है || ३ | यदि शासन करें कि 'अपने को धर्म हो' इस लिये शिशिर ऋतु में भी प्रा.काल महादेवी अपनी प्रिया पार्वती की शय्या को छोडकर कुम्भकार की तरह यह समार की रचना में लगते है, तो यह बात श्री नाम के श्री श्री ममान है. क्योंकि आप (न्यायदर्शन) श्रीमहा देवी को मानते हैं, और वह ही कृतकृत्य कहा जा सकता कार्य करने में प्रवृत्त न होने, परन्तु आपके गिरि
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