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हि'वस्तु को सत् मानता है, इत्यादि। ...
मै महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की - यदि - आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते तो स्पष्ट मालम. होता की जैनदर्शनका वह ( पूर्वोक्त ) मन्तव्य नहीं है.. परन्तु
जैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही, सद्, -असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है,, -फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा = की क्या एकही वस्तु भावस्वरूप और अमावस्वरूप कभी, होसक्ती,
है , तो, मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व, - नहीं है ? क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप - नहीं है , आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष, होकर एक वस्तु में, अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार = का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़ियेE "न हि भावैकरूप वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् । नाs. प्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् । किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् भावाऽभावरूप वस्तु । तथैव प्रमाणानां प्रवृत्तः ।
यदाह
"अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः ।