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( १७२ ) हो जाते हैं । आपतु यथाशक्ति इनको धारण करके फिर रात्रीभोजनका भी परिहार करना चाहिये। इनमें अनेक दोषोंका समूह है। फिर श्रावक २१ गुण करके संयुक्त हो जावे, वे गुण उक्त नियमोंको विशेष लाभदायक हैं और सर्व प्रकारसे उपादेय है, सत् पथके दर्शक हैं, अनेक कुगतियोंके निरोध करनेवाले हैं, इनके आसेवनसे आत्मा शान्तिके मंदिरमें प्रवेश कर जाता है ।
अथ एकविंशति श्रावक गुण विषय ॥ धम्मरयणस्स जुग्गो अक्खुद्दो रूववं पगश्सोमो॥ लोअपियो अक्कूरो असहो सुदक्खिणो ॥१॥ खजानो दयाळू मन्नको सोमदिठ्ठो गुणरागी॥ सकह सपक्खजुत्तो सुदीहदंसी विसेसएणू ॥२॥ वाणुग्गो विणियो कयएणुओ परहियत्यकारोय॥
तहचेव लद्धलक्खो गवीस गुणो हव सट्ठो॥३।। . . भाषार्थ:-जो जीव धर्मके योग्य है वह २१ गुण अवश्य ही धारण करे क्योंकि गुणोंके धारणके ही प्रभावसे गृहस्थ सु