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करना और उनकी रक्षा करते हुए साथ ही उनोंको धर्मका उपदेश करते रहना, निर्दयता कभी भी चित्त न धारण करना, ( अपितु ) अहिंसा धर्मका ही नाद करते रहना ||
१० मन्भच्छो मध्यस्थ होना - अर्थात् स्तोक वार्ताओं परि ही क्रोधयुक्त न हो जाना चाहिये, अपितु किसीका पक्षपात भी न करना चाहिये, जो काम हो उसमें मध्यस्थता अवलंबन करके रहना चाहिये क्योंकि चंचलता कार्योंके सुधारनेमें समर्थ नहीं हो सक्ति अपितु मध्यस्थता ही काम सिद्ध करती है ॥
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११ सोमदिट्ठी - सौम्य - दृष्टि युक्त' होना - अर्थात् किसी उपर भी दृष्टि विषम न करना तथा किसीके सुंदर पदार्थको देख कर उसकी मत्सरता न करना क्योंकि प्रत्येक २ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के फलोंको भोगते हैं । जो चित्तका विषम करना है वे ही कर्मोंका बंधन है ||
१२ गुणरागी - जिस जीवमें जो गुण हों उसीका ही राग करना अपितु अगुणी जीवमें मध्यस्थ भाव अवलंबन करे, अन्य जीवोंको गुणमें आरूढ़ करे, गुणों का ही प्रचारक होवे ।। १३ सक्कद - फिर सत्य कथक होवे क्योंकि सत्य वक्ताको
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