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॥ चतुर्थ सर्गः॥ . . . ॥ अथ गृहस्थ धर्म विषय ॥ . और गृहस्थ लोगोंका देशवृत्ति धर्म है क्योंकि गृहस्थ लोग सर्वथा प्रकारसे तो वृत्ति हो ही नही सक्ते इस लिये श्री भगवान्ने गृहस्थ लोगोंके लिये देशत्तिरूप धर्म प्रतिपादन किया है । सो गृहस्थ धर्मका मूल सम्यक्त्व है जिसका अर्थ है कि शुद्ध देव शुद्ध गुरु शुद्ध धर्मकी परीक्षा करना, फिर परीक्षाओं द्वारा उनको धारण करना, फिर तीन रत्नोंको भी धारण करना, न्यायसे कभी भी पराङ्मुख न होना क्योंकि गृहस्य लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है, और अपने माता पिता भगिनी भार्या मात्र इत्यादि सम्बन्धियोंके कृत्योंको भी जानना, और कमी भी अन्यायसे वर्ताव न करना । देखिये श्री शान्तिनाथजी तीर्थंकर देव न्यायसे षट् खंडका राज्य पालन करके फिर तीर्थंकर पदको प्राप्त करके मोक्ष हो गये हैं। इसी प्रकार भरव चक्रवर्ती भी पद खंडका राज्य भोग कर फिर मोक्षगत हुए । इससे सिद्ध है कि गृहस्थ लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है भौर न्यायसे ही यश,संपत् ,लक्ष्मी इनकी प्राप्ति होती है। और