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( १४९ ) सो प्रथम व्रतकी शुद्धयर्थे पांच अतिचारोंको भी वर्जित करे जोकि प्रथम व्रतमें दोषरूप है अर्थात् प्रथम व्रतको कलं. कित करनेवाले हैं, जैसेकि
बंधे १ वहे ५ बविच्छेदे ३ अश्भारे । नत्तपाणिवु ए ५॥
' अर्थः-क्रोधके वश होता हुआ कठिन बांधनोंसे जीवोंको बांधना १ और निर्दयके साथ उनको मारना २ तथा उनके अंगोपाङ्गको छेदन करना ३ अप्रमाण भारका लादना अर्थात् पशुकी शक्तिको न देखना ४ अन्न पाणीका व्यवच्छेद करना अर्थात् अन्न पाणी न देना ५ ॥ यह पांच ही दोष प्रथम व्रतको कलंकित करनेवाले हैं, इस लिये प्रथम व्रतको पालनेहारे जीव उक्त लिखे हुए पांच अतिचारोंको अवश्य ही त्यागें, तब ही व्रतकी शुद्धि हो सक्ती है ।
द्वितीय अनुव्रत विषय ।
थुलाउ मुसावायाउ वेरमणं ॥ स्थूल मृषावाद नितिरूप द्वितीय अनुव्रत है जैसेकि स्थूलमृवाचाद कन्याके लिये, गवादि पशुओंके लिये, भूम्यादिके लिये अय