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(१४८ ) लिये उसके स्थूल जीवहिंसाका परित्याग होता है, जैसेकिजान करके वा देख करके निरपराधि जीवोंको न मारे । उसमें भी सगासम्बंधि आदिका आगार होता है और इस नियमसे न्यायमार्गकी प्रवृत्ति अतीव होती है। फिर इस नियमको राजोंसे लेकर सामान्य जीवों पर्यन्त सवी आत्मायें सुखपूर्वक धारण कर सक्ते हैं और इस नियमसे यह भी सिद्ध होता होता है कि जैन धर्म प्रजाका हितैषी राजे लोगोंका मुख्य धर्म है। निरपराधियोंको मत दुःख दो और न्यायमार्गसे बाहिर भी मत होवो और सिद्धार्थ आदि अनेक महाराजोंने इस नियमको पालन किया है । फिर भी जो जीव सअपराधि है उनको भी दंड अन्यायसे न दिया जाये, दंडके समय भी दयाको पृथक् न किया जाये, जिस प्रकार उक्त नियममें कोई दोष न लगे, उस प्रकारसे ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सूत्रोंमें यह वात देखी जाती है । जिस राजाने किसी अमुक व्यक्तिको दंड दिया तो साथ ही स्वनगरमें उद्घोषणासे यह भी प्रगट कर दिया किहे लोगो ! इस व्यक्तिको अमुक दंड दिया जाता है इसमें राजेका कोइ भी अपराध नहीं है, न प्रजाका, अपितु जिस प्रकार इसने यह काम किया है उसी प्रकार इसको यह दंड दिया गया है। • इस कथनसे भी न्यायधर्मकी ही पुष्टि होती है ।