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मोपरि पापों का भार एकत्र कर रहे हैं, इस लिये प्राणिवध ( शिकार ) का त्याग अवश्यमेव ही करना चाहिये ||
षष्टम व्यसन - परस्त्री संग है, जिसके ग्रहणसे अनेक राजाओंके भयाणक संग्राम हुए और उनको परम कष्ट भोगने पड़े । अपितु कतिपय के तो प्राण भी चले गये और परस्त्री संगसे अनेक दुःख जैसे कि - अपयश, मृत्युका भय, रोगों की वृद्धि, शरीरका नाश, राज्यदंड इत्यादि अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, इस लिये गृहस्थ लोग षष्टम व्यसनका भी परित्याग करें ॥
सप्तम व्यसन - चौर्य कर्म है, सो यह भी महा हानिकारक, -वध वैधादिका दाता, निंदनीय दुःखोंकी खानि, धर्मके वृक्षको काटने के लिये परशु, सुकृतिका नाश करता, जिसके आसेवन से 'देशमें अशान्ति इत्यादि अवगुणों का समूह है सो धर्मकी इच्छा करता हुआ गृहस्थ इस चौर्य कर्मका भी परिहार करे | फिर द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार धर्मका उदय करता हुआ गुरु मुखसे द्वादश व्रत धारण करे जो निम्न लिखितानुसार है ||
थुलात पाणाश्वायाज वेरमणं ॥
स्थूळ जीवहिंसा से निवृत्तिरूप प्रथम अनुव्रत है क्योंकि सर्वथा जीवहिंसाकी तो गृहस्थी निवृत्ति नही कर सक्ते, इस