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( ११० ) राग भी चितवन न करे अर्थात् स्त्रियों को पंक (कीचड़ ) भूत जानके परित्याग करे ८ ॥ ग्रामों नगरोंमें विहार करते समय जो कष्ट उत्पन्न होता है उसको सम्यक् प्रकारसे सहन करे, ऐसे न कहे विहारसे बैठना ही अच्छा है ९॥ ऐसे ही बैठनेका भी परीषह सहन करे, क्योंकि जिस स्थान मुनि बैठा हो विना कारण वहांसे न ऊठे १० ॥ और सम विषम शय्या मिलनेसे भी शान्तिपूर्वक परिणाम रक्खे ११॥ यदि कोई आक्रोश
देता हो वा दुर्वचनोंसे अलंकृत करता, हो- तो उसपर क्रोध न _करे क्योंकि ज्ञानसे विचारे इसके पास यही परितोषिक है १२॥
यदि कोई वध ( मारने ) ही करने लग जावे तो विचारे यह मेरे आत्माका तो नाश कर ही नही सक्ता अपितु शरीर मेरा है ही नही, इस प्रकारसे वध परीषहको सहन करे १३ ॥ फिर याचनाका भी परीषह सहन करे अर्थात याचना करता हुआ लज्जा न करे १४ ॥ यदि याचना करनेपर भी पदार्थ उपलब्ध नही हुआ है तो विषवाद न करेः १५॥ रोगों के आनेपर शान्तिभाव रक्खे तथा सावध औषधि भी न करे १६ ॥ और संस्तारकादिमें तोंका भी स्पर्श-सहन करे किन्तु तृणोंका परित्याग करके वस्त्रोंकी याचना न करे १७॥ स्वेदके आ जाने पर मलका परीषह सहन करे १८॥ इसी प्रकार सत्कार