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( १३३ ) विचार किया कि यदि मैंने किसी औरको सिखला दिया तो मेरी प्रतिष्ठा भंग हो जायगी २ ॥ और ज्ञानके पठन करने में अंतराय देना अर्थात् ऐसे २ उपाय विचारने जिस करके लोग विद्वान् न बन जावे और पूर्ण सामग्री होनेपर भी ज्ञानमृद्धिका कोई भी उपाय न विचारना ३ || और ज्ञान देप फरना ४ ॥ ज्ञानकी आशातना करना ५ ॥ ज्ञानमें विपयाद करना तथा सत्य स्वरूपको परित्याग करके वितंडावादयं बगे रहना ६ ॥ इन कर्मोंसे जीव ज्ञानावर्णी फर्मको बांधते है जिसके प्रभावसे जाननेकी शक्तिसे भिन्न ही रह जाते हैं,
और इन कर्मों ( कारणोंसे ) के परित्याग करनेसे जीव ज्ञानावर्णको दूर कर देते हैं, जिस करके उनको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति रो जाती है। और दर्शनावर्णी कर्म भी जीव उक्त ही कारणाने बांधते है जैसेकि-दर्शनमत्यूनीकना करनेसे १ दर्शननिण्डवता २ दर्शन अंतराय ३ दर्शन मद्वेषना ४ दर्शन आगातना ५ दर्शन विपवाद योग ६ ॥ इन कारणों से जीव दर्शनावणी कर्मको बांधकर चक्षुदर्शनादिका निरोध करने है २ ॥ और वेद
नीय कर्म द्वि प्रकारसे वाधा जाता है जैसे कि सुख वेदनी ', : दुःखवेदनी २। अर्थात् जिसने किसी को भी पीड़ा नही दी, पर्व : रक्षा करता रहा, किसीको दुःखिन नहीं किया, वह जीव सदस्य ' वेदनी कर्म बांधता है और उसका सुखरूप ही फल भोगता है ।।