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निर्णेतुमक्षमतया विविधागमार्थो
च्छिष्टैकदेशलघुसंग्रहमात्रकारी। आचार्यलक्षणविहीनतया न मान्यः __ संशायकोच्युपनमजिनो जिनो नः ॥३९॥ स्याद्वादसिद्ध्युपगमे स्वमतस्य हानि- .
स्तत्र प्रमाणकथनेऽपि स एव दोषः। । साध्यप्रमाणविषये तु कथं प्रवृत्तिः
सेष्टा सदा मतिमतोऽध्यवसायपूर्वा ॥४०॥ . द्विवेतरेतरविरुद्धसशङ्कवाक्या
वृत्येकसारमपि शास्त्रमिति प्रवक्तः । नीराजयन्तु वदनं कृतहस्तताला
जैनागना बहुलगोमयदीपिकाभिः॥४१॥" प्रथम ३६ में श्लोकों तो पण्डितजी ने गेहेशूरता दिखलाई है याने डरपोक की तरह जैनतार्किकों को है । फिर आगे चल कर पण्डितनी अपनी पण्डिताई छांटते हुए कहते
हैं की वस्तु याने पदार्थ की स्थिति की ठीक ठीक प्रमिति (ज्ञान ) करानी यही प्रमाण का कार्य है. और वस्तु सद् और असद,
ऐसे दो स्वभाववाली नहीं है, तब भी जो तुम यह कहते हो कि वस्तु । सत् और असत् यह उभयखभावसहित है वह तुमको भ्रम है, तो
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