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कर दान देवे अर्थात् साधुओंकी वैयावृत्य करे ९ ॥ और मन वचन कायासे शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करे जैसे कि पूर्वे लिखा जा चुका है १० || ब्रह्मचर्यकी रक्षा तपसे होती सो तप द्वादश प्रकार से वर्णन किया गया है || यथा
(१) व्रतोपवासादि करने या आयुपर्यन्त अनशन करना, (२) स्वल्प आहार आसेवन करना, (३) भिक्षाचरीको जाना, (४) रसों का परित्याग करना, (५) केशलुंचनादि क्रियायें, ( ६ ) इन्द्रियें दमन करना, (७) दोप लगनेपर गुर्वादिके पास विधिपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त धारण करना, ( ८ ) और जिनाशानुकूल विनय करना, ( ९ ) वैयावृत्य (सेवा) करना, (१०) फिर स्वाध्याय ( पटनादि ) तप करना, ( ११ ) अपितु आर्तध्यान रौद्रध्यानका परित्याग करके धर्मध्यान शुक्लध्यानका आसेवन करना, ( १२ ) अपने शरीरका परित्याग करके ध्यानमें ही मग्न हो जाना || अपितु द्वादश प्रकारके तपको पालण करता हुआ द्वाविंशति परीपको शान्तिपूर्वक सहन करे || जैसेकि -
- द्वादश प्रकार के तपका पूर्ण वर्ण श्री खवाइ आदि सूत्रोंसे देखो ||