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( २ ) बड़े बड़े छात्र मेरे अच्छे स्नेही हो गये. वहां के अध्यक्ष को मैंने प्रार्थनापूर्वक अपनी पूर्वोक्त इच्छा प्रकट की तब उन्होंने बड़े हर्ष के साथ एक अध्यापक के पास मुझको परिपूर्ण समय दिया. वहा भी कम से कम मै दो. वर्ष पढा, और जैनन्याय के स्याद्वादमज्जरी, रलाकरावतारिका, अनेकान्तजयपताका, सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों को समाप्त कर दिया, और भी कई जैन के आगमग्रन्थ भी देख डाले, इससे मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हुआ कि जैनदर्शन में परस्पर जरासा भी विरोध नहीं है, और सब प्राचीन जैनग्रन्थ एक ही मन्तव्य पर चलते है. और वेदानुयायि, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक. वेदान्तादि दर्शनो में बहुतसा विरोध स्पष्ट दिखाई देता है याने जो वेदकी श्रुति का नैयायिक लोक अर्थ करते है, उससे विपरीत ही सांख्य लोक करते है, तात्पर्य यह है कि पूर्व आर्यावर्त में सदैव सुभिक्ष होने से निश्चिन्ततासे प्राचीन ऋषिओ ने बिचारे वेदकी मिट्टी को खराब कर दी है किसी कविने कहा है कि
"श्रुतयश्च भिन्नाः स्मृत्तयश्च भिन्ना
नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः " ॥१॥ । यह ठीक २ सुघटित होता है. और जैन दर्शन पढ़ने से मुझ