Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जैन दर्शन में आत्मा या जीवतत्त्व
आत्मा या जीव तत्त्व को पंच अस्तिकाय षद्रव्य और नवतत्त्व-इन तीनों का लक्षण उपयोग या चेतना माना गया है, इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के इन दो प्रकारों की चर्चा आगमों में भी मिलती है- निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान भी कहा जाता है। निराकार उपयोग, वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, दर्शन कहा जाता है और साकार उपयोग वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण ज्ञान कहा जाता है।
जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन-दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार, प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार, संक्षेप में जीव अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य रूप है और इसका लक्षण उपयोग या चेतना है।
जीव को जैन-दर्शन में आत्मा भी कहा गया है, अतः यहाँ आत्मा के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर विचार किया जा रहा हैं - आत्मा का अस्तित्त्व
जैन-दर्शन में जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है, आत्मा के अस्तित्त्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्म-विश्वास है। विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये गये हैं -
(1) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असद् वस्तु की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती है।(1575)
___(2) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही किसी विचारशील सत्ता अर्थात् जीव की सत्ता को सिद्ध कर देता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सेंकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष है।(1571)
जैन तत्त्वदर्शन