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सुन कर उस दुरात्माने प्रभु पर तेजोलेश्या छोड़ी। वह लेश्या भगवान को तीन प्रदक्षिणा दे कर वापिस गोशाले के ही शरीर में जा घुसी। उससे उसका शरीर दग्ध हो गया और अनेकविध वेदनायें भोग कर सातवीं रात को मर गया । उस तेजोलेश्या के आताप से भगवान को ६ मास तक सौच में खून पड़ने की पीड़ा सहन करनी पड़ी। इस प्रकार जिसका नाम स्मरण करने मात्र से सर्व दुःख उपशान्त हो जाते हैं ऐसे सर्वज्ञ वीरप्रभु को यह उपसर्ग हुआ वह प्रथम आश्चर्य हुआ ।
(२) गर्भहरण - एक उदर से दूसरे उदर में रखना, यह आज तक किसी भी जिनेश्वर का न हुआ था, किन्तु श्री वीरप्रभु का हुआ यह दूसरा आश्चर्य हुआ ।
(३) स्त्री तीर्थंकर - सदैव पुरुष ही तीर्थकर होते हैं परन्तु इस अवसर्पिणी काल में मिथिला नगरी के स्वामी राजा कुंभ की पुत्री मल्लि नामक उन्नीसवें तीर्थंकर हो कर तीर्थ की प्रवृत्ति कराई । यह तीसरा आश्चर्य हुआ ।
(४) अभावित पर्षदा-सर्वज्ञ देव की देशना कदापि ऐसी नहीं होती कि जिससे किसी भी प्राणी को बोध न हो, परन्तु श्री वीरप्रभु को केवलज्ञान होने पर जो प्रथम पर्षदा में उन्होंने देशना दी उससे किसीके भी मन में कुछ व्रत धारण करने का भाव पैदा न हुआ । यह चौथा आश्चर्य हुआ ।
(४) अपरकंकागमन - एक समय पाण्डव पत्नी द्रौपदीने वहाँ आये हुए नारद को असंयत समझ कर सन्मुख उठने का सन्मान न दिया । इससे नारदने कुपित हो द्रौपदी को कष्ट में डालने के लिए घातकी खण्ड के
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