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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी अनुवाद |
॥ १०५ ।।
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तथा हमारे इस कुमार का नाम अरिष्टनेमि हो, यहां तक कथन करना चाहिये ।
प्रभु जब गर्भ में थे तब माताने स्वप्न में अरिष्ट रत्नमय चक्र की धार देखी थी इसीसे प्रभु का अरिष्टनेमि नाम रक्खा था। अरिष्ट में आदि का अ अमंगल दूर करने के लिये है, क्योंकि रिष्ट शब्द अमंगलवाची है । अरिष्टनेमि विवाहित न होने के कारण कुमार कहलाते हैं। वे विवाहित नहीं हुए सो प्रकरण इस प्रकार है । एक दिन शिवादेवी माताने प्रभु को युवावस्था प्राप्त देख कर कहा - हे वत्स ! तू विवाह मंजूर करके हमारे मनोरथ पूर्ण कर । प्रभुने कहा- माताजी ! जब योग्य कन्या मिलेगी तब विवाह करूंगा ।
भगवान का अतुल पराक्रम ।
एक दिन कौतुक रहित होने पर भी प्रभु मित्रकुमारों से प्रेरित हो क्रीड़ा करते हुए कृष्ण वासुदेव की आयुध (शस्त्र) शाळा में चले गये । वहाँ पर कुतूहल देखने की इच्छावाले मित्रों के आग्रह से उन्होंने वासुदेव का सुदर्शन चक्र उठा लिया और अंगुली के अग्रभाग पर कुंभार के चाक के समान उसे घुमाया । शार्ङ्ग धनुष्य भी कमलनाल के समान नमा दिया। कौमोदिकी नामा गदा को भी एक लकड़ी के तुल्य उठा लिया । तथा पाँचजन्य शंख को उठा कर उसे मुख से लगा उस में जोरसे फूंक मारी ।
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वासुदेव के प्रत्येक रत्न का ऐसा प्रभाव है कि उसकी हजार २ देवता रक्षा करते हैं । उन्हें उठाना तो दूर रहा, उनके नजदीक भी कोई नहीं आ सकता। मगर भगवान् तो अनंत शक्तिवाले थे इस लिये उनके लिये कोई असम्भव बात नहीं थी।
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सातवां व्याख्यान.
॥ १०५ ॥