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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद |
चिल्लाया और बोला कि पीड़ा होती है। कुंभारने फिर मिच्छामि दुक्कडं दिया। तब क्षुल्लक बोला- वारंवार वही काम करते हो और माफी भी मांगते हो या मिच्छामि दुक्कडं भी देते हो यह कैसा मिच्छामि दुक्कडं है ? कुँभार बोला महाराज ! जैसा आपका मिच्छामि दुक्कडं है वैसा ही मेरा भी है । ५९ ।
२५ चातुर्मास रहे साधु साध्वी को तीन उपाश्रय ग्रहण करने कल्पते हैं । जंतु संसक्ति आदि के भय से उन तीन उपाश्रयों में दो उपाश्रयों को वारंवार प्रतिलेखन-साफसूफ कर रखना चाहिये । जो उपाश्रय ॥ १५८ ॥ उपभोग में आता उस सम्बन्धी प्रमार्जना करनी चाहिये । अर्थात् जिस उपाश्रय में साधु रहते हों उसको प्रातःकाल, जब दो पहर के समय गोचरी को जावें तब और फिर तीसरे पहर के अन्त में इस तरह तीन दफा प्रमार्जित करना चाहिये । चातुर्मास के सिवा दो दफा प्रमार्जना करनी चाहिये । जब उपाश्रय जीव से असंसक्त हो तब का यह विधि है। यदि जीव से संसक्त हो तो वारंवार प्रमार्जना करनी चाहिये । शेष दो उपाश्रयों को नजर से देखते रहना चाहिये । परन्तु उनमें ममत्व न करना चाहिये । तथा तीसरे दिन प्रछन से - दंडासन से पड़िलेहना चाहिये । ६० ।
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२६ चातुर्मास रहे साधु साध्वी को अन्यतर दिशाओं का अवग्रह कर के अमुक दिशा और अनुदिशाआदि विदिशाओं का अवग्रह कर के अमुक दिशा या विदिशा में मैं जाता हूँ दूसरे साधुओं को यों कह कर भात पानी के लिए जाना कल्पता है। हे पूज्य ! ऐसा किस हेतु से कहा है ? इस तरह शिष्य की तरफ से प्रश्न
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नौवां
व्याख्यान.
॥ १५८ ॥