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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद | चिल्लाया और बोला कि पीड़ा होती है। कुंभारने फिर मिच्छामि दुक्कडं दिया। तब क्षुल्लक बोला- वारंवार वही काम करते हो और माफी भी मांगते हो या मिच्छामि दुक्कडं भी देते हो यह कैसा मिच्छामि दुक्कडं है ? कुँभार बोला महाराज ! जैसा आपका मिच्छामि दुक्कडं है वैसा ही मेरा भी है । ५९ । २५ चातुर्मास रहे साधु साध्वी को तीन उपाश्रय ग्रहण करने कल्पते हैं । जंतु संसक्ति आदि के भय से उन तीन उपाश्रयों में दो उपाश्रयों को वारंवार प्रतिलेखन-साफसूफ कर रखना चाहिये । जो उपाश्रय ॥ १५८ ॥ उपभोग में आता उस सम्बन्धी प्रमार्जना करनी चाहिये । अर्थात् जिस उपाश्रय में साधु रहते हों उसको प्रातःकाल, जब दो पहर के समय गोचरी को जावें तब और फिर तीसरे पहर के अन्त में इस तरह तीन दफा प्रमार्जित करना चाहिये । चातुर्मास के सिवा दो दफा प्रमार्जना करनी चाहिये । जब उपाश्रय जीव से असंसक्त हो तब का यह विधि है। यदि जीव से संसक्त हो तो वारंवार प्रमार्जना करनी चाहिये । शेष दो उपाश्रयों को नजर से देखते रहना चाहिये । परन्तु उनमें ममत्व न करना चाहिये । तथा तीसरे दिन प्रछन से - दंडासन से पड़िलेहना चाहिये । ६० । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६ चातुर्मास रहे साधु साध्वी को अन्यतर दिशाओं का अवग्रह कर के अमुक दिशा और अनुदिशाआदि विदिशाओं का अवग्रह कर के अमुक दिशा या विदिशा में मैं जाता हूँ दूसरे साधुओं को यों कह कर भात पानी के लिए जाना कल्पता है। हे पूज्य ! ऐसा किस हेतु से कहा है ? इस तरह शिष्य की तरफ से प्रश्न For Private And Personal नौवां व्याख्यान. ॥ १५८ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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