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और ग्यारह गणधर थे । क्यों कि अकंपित और अचलाता की एक वाचना थी । तथा मेतार्य और प्रभास की भी एक वाचना थी, इसीसे नव गण और ग्यारह गणधर थे यह युक्तसिद्ध है।
इंद्रभृति आदि जो श्रमण भगवन्त महावीर प्रभु के ग्यारह गणधर थे वे द्वादशांगी अर्थात् आचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंगों को जाननेवाले थे। द्वादशांगी के ज्ञाता मात्र कहने से चौदहपूर्वी पन उसमें आही जाता है, तथापि उन अंगों में चौदह पूर्वी की प्रधानता बतलाने के लिए उन्हे पृथक् ग्रहण किया है। वह प्रधानता प्रथम रचना होने से, अनेक विद्या, मंत्रादि के अर्थमय होने के कारण एवं उनका बड़ा प्रमाण होने से है। द्वादशांगीपन और चौदह पूर्वीपन तो सिर्फ सूत्र के ज्ञाता कहने से भी आजाता है । इस शंका को दर करने के लिए कहा है कि-समस्त गणिपिटक को धारण करनेवाले थे, जिसका गण हो वह गणी अर्थात भावाचार्य, और उसकी मानो पिटक कहने से पेटी ही हो । अर्थात् द्वादशांगीरूप गणिपिटक को धारण करने वाले थे। उस द्वादशांगी को भी स्थूलिभद्रजी के समान देश से नहीं, किन्तु सर्व अक्षर के संयोग जानने के कारण उन्हें सूत्र और अर्थ से धारण करनेवाले थे। वे ग्यारह ही गणधर राजगृह नगर में चौविहार मासभक्त की तपस्या से याने एक मास तक भोजन का परित्याग करके पादोपगमन अनशन द्वारा मोक्ष को गये । यावत्
* श्री स्थूलिभद्रजी जिनशासन में छ? चौदहपूर्वधर कहे जाते हैं किन्तु वे दशपूर्व अर्थ सहित और चार मूल मात्र के ज्ञाता थे। इसका विशेष वर्णन इनके चरित्र से देखो।
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