Book Title: Hindi Jain Kalpasutra
Author(s): Atmanand Jain Sabha
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 311
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir स्थविर को । ज्ञानादि के विषय में प्रवृत्ति करनेवाले प्रवर्तक को। जिसके पास आचार्य सूत्रादि का अभ्यास करते हैं उस मणि को। तीर्थकर के शिष्य गणधर को । जो साधुओं को लेकर बाहर अन्य क्षेत्रों में रहते हैं, गच्छ के लिए क्षेत्र, उपधि की मार्गणा आदि में प्रधावन वगैरह करनेवाले-उपधि आदि ला देनेवाले और सूत्र तथा अर्थ दोनों को जाननेवाले गणावच्छेदक को । अथवा अन्य साधु जो वय और पर्याय से लघु भी हो परन्तु जिसको गुरुतया मान कर विचरते हैं उसको । उस साधु को आचार्य यावत् जिसे गुरुतया मानकर विचरता हो उसे पूछ कर जाना कल्पता है । किस तरह पूछना ? सो कहते हैं-हे पूज्य ! यदि आप की आज्ञा हो तो मैं भात पानी के लिए गृहस्थ के घर जानाआना चाहता हूँ। यदि ऐसा पूछने पर आचार्यादि आज्ञा देवे तो भात पानी के लिये गृहस्थ के घर जानाआना कल्पता है । आज्ञा न देवें तो नहीं कल्पता। शिष्य पूछता है कि हे पूज्य ! ऐसा क्यों कहा है ? गुरु कहते हैं कि आचार्य आदि विघ्न के परिहार को जानते हैं । ४६ । इसी प्रकार जिनचैत्य में जाना, विचार भूमि-दिशा फराकत जाना, अथवा उवास आदि वर्ज कर लीपना, सीना, लिखना आदि जो कार्य हो सब पूछ कर करना । इसी तरह कमी भिक्षादि के लिए या बिमारादि के कारण दूसरे गाँव जाना पड़े तो पूछ कर जाना कल्पे। अन्यथा वर्षाऋतु में दूसरे गाँव जाना सर्वथा अनुचित है। ४७। चातुर्मास रहे साधु यदि कोई दूसरी विगय खाना इच्छे तो आचार्य यावत् जिसे गुरु मान कर विचरता For Private And Personal

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