Book Title: Hindi Jain Kalpasutra
Author(s): Atmanand Jain Sabha
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 313
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir चातुर्मास रहे साधु जो चाहे वह कैसा साधु ? अपश्चिम याने चरम-अन्तिम मरण सो अपश्चिम मरण, परन्तु प्रतिक्षण आयु के दलिक अनुभव करनेरूप आवीचि मरण नहीं । अपश्चिम मरण ही जिसमें अन्त है वह अपश्चिम मरणान्तिकी, ऐसी शरीर, कषायादिको कुशकरनेवाली संलेखना, द्रव्य भाव भेदोंसे भिन्न भेदवाली। 'चत्तारि विचित्ताई' इत्यादि । उसका जोषण-सेवन सो संसेखनाकी सेवा उससे शरीर जिसने कुश कर डाला है, अर्थात अपश्चिम मरणान्तिकी संलेखना की सेवा से सेवन से जिसने शरीर को अतिकश कर डाला है और इसी कारण जिसने भातपानी का भी प्रत्याख्यान कर लिया है, अर्थात् जिसने पादोपगम अनशन किया है और इससे जीवित काल को न चाहनेवाला साधु इस प्रकार करने की इच्छा रखता हुआ गृहस्थ के घर में जाने आने अशनादिका आहार करने मल, मूत्र परठने, स्वाध्याय करने तथा धर्मजागरिका जागने याने आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय ये चार भेदरूप धर्मध्यान के विधानादि द्वारा जागने को इच्छे तो गुरु आदि को पूछे सिवाय कुछ भी करना नहीं कल्पता । सब कुछ पहले जैसे ही समझना चाहिये । गुरु की आज्ञा से ही करना कल्पता है । ५१ । १८ चातुर्मास रहे साधु वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण एवं अन्य उपधि तपाने के लिए-एक दफा धूप में सुकाने के लिए, न तपाने से कुत्सापनक आदि दोषोत्पत्ति का संभव होने से वारंवार तपाना इच्छे तब एक साधु या अनेक साधुओं को मालूम किये विना उसे गृहस्थ के घर भातपानी के लिए जानाआना या अशनादि For Private And Personal

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