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दफा जाना नहीं कल्पता। आचार्य आदि की वैयावच्च करनेवाले साधुओं को वर्ज कर यह अर्थ समजना चाहिये । यदि वे एक दफा भोजन करने से अच्छी तरह सेवा भक्ति नहीं कर सकते तो दो दफा भी भोजन कर सकते हैं, क्यों कि वैयावृत्य-सेवा श्रेष्ठ है । आचार्य की वैयावृत्य करनेवाले एवं बीमार की वैयावृत्य करनेवाले साधुओं को वर्ज कर दूसरे साधु एक दफा भोजन करें। जब तक मूछ, दाढ़ी, बगल आदि के बाल न जमे हों तब तक शिष्य और शिष्यांओं को भी दो दफा भोजन करने में दोष नहीं है। वैयावृत्य करनेवाले को भी दो दफा भोजन करना कल्पता है । २०।।
चातुर्मास रहे हुए एकान्तरे उपवास करनेवाले साधुओं को जो अब कहेंगे सो विशेष है । वह सुबह गोचरी | जाने के लिए उपाश्रय से निकल कर पहले ही शुद्ध प्रामुक आहार लाकर खाकर, छास आदि पीकर, पात्रों को निर्लेप करके-वस्त्रसे पोंछ कर, प्रमार्जित कर के, धोकर यदि वह चला सके तो उतने ही भोजन में उस दिन रहना कल्पता है । यदि वह साधु आहार कम होने से न चला सकता हो तो उसे दूसरी दफा भी भात पानी के लिए गृहस्थ के घर जाना आना कल्पता है । २१ । चातुर्मास रहे नित्य छठ करनेवाले साधु को गृहस्थ के घर भात पानी के लिए दो दफा आना जाना कल्पता है। २२ । चातुर्मास रहे नित्य अहम करनेवाले साधु को गृहस्थ के घर भात पानी के लिए तीन दफा जाना आना कल्पता है । २३ । चातुर्मास रहे नित्य अट्ठम उपरान्त तप करनेवाले साधु को गृहस्थ के घर भात पानी के लिए गोचरी के सर्व काल में जाना आना कल्पता है । अर्थात्
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