Book Title: Hindi Jain Kalpasutra
Author(s): Atmanand Jain Sabha
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 303
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir साधु को अनाच्छादित जगह में भिक्षाग्रहण करके आहार करना नहीं कल्पता । अनाच्छादित स्थान में आहार करते हुए यदि अकस्मात् वृष्टि पड़े तो भिक्षा का थोड़ा हिस्सा खा कर और थोड़ा हाथ में ले कर उसे दूसरे हाथ से ढक कर हृदय के आगे ढक रखे या कक्षा में ढक रखे, इस प्रकार कर के गृहस्थ के आच्छादित स्थान तरफ जावे या वृक्ष के मूल तरफ जावे कि जिस जगह उस साधु के हाथ पर पानी के बिन्दु विराधना न करें या न पढ़ें। यद्यपि जिनकल्पी आदि कुछ कम दश पूर्वधर होने से प्रथम से ही वृष्टि का उपयोग कर लेते हैं इससे आधा खाने पर उठना पड़े यह संभवित नहीं है तथापि छयस्थता के कारण कदाचित् अनुपयोग भी हो जावे । । २९ । कथन किये अर्थ का ही समर्थन करते हुए कहते हैं कि चातुर्मास रहे पाणिपात्र साधु को कुछ भी पानी बिन्दु उस पर पड़े तो उस जिनकल्पी आदि को गृहस्थ के घर भात पानी को जाना आना नहीं कल्पता। । ३०। यह करपात्रियों का विधि कहा, अब पात्र रखनेवाले साधुओं का विधि कहते हैं। चातुर्मास रहे पात्रधारी स्थविरकल्पी आदि साधु को अविच्छिन्न धारा से वृष्टि होती हो अथवा जिसमें वर्षाकल्प-वर्षाकालमें ओढने का कपड़ा या छप्पर की लौती पानी से टपकने लगे या कपड़े को भेदन कर पानी अन्दर के भाग में शरीर को भिगोवे तब गृहस्थ के घर भात पानी के लिए आना नहीं कल्पता । यहाँ अपवाद कहते हैं कि-उस स्थविरकल्पी को यदि अन्तर अन्तरसे थम थम कर वृष्टि होती हो तब या अन्दर सूत का वस्त्र और ऊपर ऊनका वस्त्र इन दोनों से लिपटे हुए स्थविरकल्पी को थोड़ी दृष्टि में गृहस्थ के घर भात For Private And Personal

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