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रहना है इससे हम बीमार आदि के लिए ग्रहण करेंगे। वह गृहस्थ कहे कि-चातुर्मास तक लेना वह बहुत है तब वह लेकर बालादि को देना । परन्तु जुवान को न देना । यद्यपि मध, मांस और मक्खन तो साधु के लिए जीवन पर्यन्त सर्वथा परित्याग होता है तथापि अत्यन्त अपवाद दशा में बाह्य परिभोग वगैरह के लिए कभी ग्रहण करना पड़े तो ले सकता है परन्तु चातुर्मास में तो सर्वथा निषेध है। १७ ।
६ चातुर्मास रहे हुए साधुओं में वैयावच्च-सेवा करनेवाले मुनिने प्रथम से ही गुरुमहाराज को यों कहा हुआ हों कि-हे भगवान् ! बीमार मुनि के लिए कुछ वस्तु की जरूरत है ? इस प्रकार सेवा करनेवाले किसी मुनि के पूछने पर गुरु कहे कि-बीमार को वस्तु चाहिये ? चाहिये तो बीमार से पूछो कि-दूध आदि तुम्हें कितनी | विगय की जरूरत है ? बीमार के अपनी आवश्यकतानुसार प्रमाण बतलाने पर उस सेवा करनेवाले मुनि को गुरु के पास आकर कहना चाहिये कि चीमार को इतनी वस्तु की जरूरत है। गुरु कहे-जितना प्रमाण वह बीमार बतलाता है, उतने प्रमाण में वह विगय तुमने ले आना। फिर सेवा करनेवाला वह मुनि गृहस्थ के पास जा कर माँगे । मिलने पर सेवा करनेवाला मुनि जब उतने प्रमाणमें वस्तु मिल गई हो जितनी बीमार को जरूरत है तव कहे कि बस करो, गृहस्थ कहे-भगवान् ! बस करो ऐसा क्यों कहते हो? तब मुनि कहे-बीमार को इतनी ही जरूरत है, इस प्रकार कहते हुए साधु को कदाचित् गृहस्थ कहे कि-हे आर्य साधु ! आप ग्रहण करो, बीमार के भोजन करने के बाद जो बचे सो आप खाना, दूध वगैरह पीना । क्वचित पाहिसित्ति के बदले दाहिसित्ति
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