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श्री
| आठवां पाख्यान.
कल्पसूत्र
हिन्दी
बनुवाद।
॥१२८॥
सर्व दुःखों से मुक्त होगये । श्रीमहावीर प्रभु मोक्ष गये बाद स्थविर इंद्रभृति और स्थविर सुधर्मास्वामी ये दोनों मोक्ष गये । ग्यारह गणधरों में से नव तो प्रभु के जीतेजी ही मोक्ष पधार गये थे । इस वक्त जो साधु विचरते हैं उन सब को आर्य सुधर्मा अणगार के शिष्यसंतान समझना चाहिये। शेष गणधर शिष्यसंतान रहित हैं । क्यों कि वे अपने निर्वाण समय अपने २ गण को सुधर्मस्वामी को सोंप कर मोक्ष गये है। कहा है कि-सर्व गणधर समस्त लब्धियों से संपन्न, वज्रऋषभनाराच संहननवाले और समचतुरस्र संस्थानवाले, एक मास के पादोपगमन से मुक्ति गये।
श्री सुधर्मास्वामी-श्रमण भगवन्त श्री महावीर प्रभु काश्यप गोत्रीय थे। उन काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवन्त महावीर प्रभु के अग्निवैश्यापन गोत्रवाले आर्य सुधर्मा स्थविर शिष्य थे। श्रीवीर प्रभु की पाट पर श्री सुधर्मास्वामी पाँचवें गणधर थे । उनका स्वरूप इस प्रकार है-कोल्लाग संनिवेश में धम्मिल नामक ब्राह्मण के भदिला नामा स्त्री थी। उसकी कुक्षी से एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ जिसका नाम सुधर्म रक्खा गया। उसने चौदह विद्या के पारगामी होकर पचास वर्ष की वय में दीक्षा ली। तीस वर्ष तक वीर प्रभु की सेवा की। वीर प्रभु के निर्वाण पाद बारह वर्ष के अन्त में, जन्म के बाणवें वर्ष के अन्त में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर आठ वर्ष तक केवलीपर्याय पालकर सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर और अपनी पाट पर श्रीजम्बूस्वामी को स्थापित x कोलापुर शहर ।
१२८॥
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