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श्री
नौवां व्याख्यान.
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद। ॥१४३॥
याने तेरह मास होने पर सांवत्सरिक क्षमापना में 'बारसहं मासाणं' इत्यादि बोलते हुए अधिक मास को अंगीकार नहीं करता। इसी तरह चातुर्मासिक क्षमापना में भी अधिक मास हो तथापि 'चउण्हं मासाणं' इत्यादि और.पाक्षिक क्षमापना में अधिक तिथि होने पर भी 'पन्नरसण्हं दिवसाणं' इस तरह ही तूभी बोलता है । इसी तरह नव कल्पविहार आदि लोकोत्तर कार्य में भी बोला जाता है । तथा 'आषाढे मासे दुपया' इत्यादि, सूर्यचार के विषय में भी ऐसे ही कहाजाता है। लोक में भी दीपावली, अक्षयतृतीया आदि पर्व के विषयमें एवं व्याज गिनने आदिमें भी अधिक मास नहीं गिना जाता यह तू स्वयं जानता है । तथा अधिक मास नपुंसक होनेसे ज्योतिष शास्त्र उसमें तमाम शुभ कार्य करने का निषेध करता है । दूसरा मास कोई अधिक हो उसकी तो बात ही दूर रही परन्तु यदि भाद्रव मास भी अधिक हो भी पहला भाद्रव अप्रमाण ही है। अर्थात दूसरे ही भाद्रवमें पर्युषणा की जाती है। जैसे चतुर्दशी अधिक होने पर पहली चतुर्दशी को न गिन कर दूसरी चतुर्दशी को ही पाक्षिक कृत्य किया जाता है वैसे ही यहाँ पर भी समझ लेना चाहिये । और यदि तू यह कहे कि अधिक मास अप्रमाण होने से देवपूजा, मुनिदान और आवश्यकादि शुभ कार्य भी न करने चाहियें तो इस दलील को यहाँ स्थान नहीं मिलता क्यों कि दिनप्रतिबद्ध देवपूजा, मुनिदान वगैरह जो कृत्य हैं वे तो प्रतिदिन होने ही चाहिये, और संध्या आदि समयप्रतिबद्ध जो आवश्यक आदि कृत्य हैं वे भी हरएक संध्या समय पाकर करने ही चाहियें । एवं भाद्रपद आदि माससे प्रतिवद्ध जो कृत्य हैं वे दो भाद्रपद होने पर कौन
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