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मालूम न होनेवाली यह है-जिसमें चातुर्मास के योग्य पीठ फलकादि प्राप्त करने पर भी कल्प में कथन किये मुजब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप स्थापना की जाती है और वह भी आषाढ पूर्णिमा के भीतर ही की जाती है। परन्तु योग्य क्षेत्र के अभाव में पाँच पाँच दिन की वृद्धि से दश पर्वतिथि के क्रमद्वारा श्रावण वदि अमावास्या तक ही की जाती है । गृहीज्ञाता-गृहस्थी को मालूम होनेवाली भी दो प्रकार की है । एक वार्षिक कृत्यों से युक्त और दूसरी गृही ज्ञातमात्रा-सिर्फ गृहस्थो को मालूम होनेवाली । उसमें भी वार्षिक प्रतिक्रमण, लोच, अट्ठम का तप, सर्व जिनेश्वरों की भक्तिपूजा और परस्पर संघ से क्षमापना, ये सांवत्सरिक कृत्य है। इन कृत्यों सहित पर्युषणा भादरवा सुदि पंचमी के दिन ही और कालिकाचार्य के उपदेशसे चतुर्थी के दिन भी की जाती है। सिर्फ गृहस्थों को मालूम होनेवाली यह है-जिस वर्षमें अधिक मास हो उस वर्षमें चातुर्मास दिन से लेकर बीस दिन बाद मुनि' हम यहाँ रहें हैं' पूछनेवाले गृहस्थों के आगे ऐसा कहते हैं। सो भी जैन पंचांग के अनुसार है। क्यों कि उसमें युग के मध्यमें पौष तथा युग के अन्त में आषाढ मास की वृद्धि होती है, किन्तु अन्य किसी मास की वृद्धि नहीं होती। वह पंचांग आज कल बिल्कुल मालूम नहीं होता। इस कारण आषाढ पूर्णिमा से पचास दिन पर पर्युषण करना युक्त है ऐसा वृद्ध आचार्य कहते है । यहाँ पर कोई कहता है कि श्रावण मास की वृद्धि हो तब दूसरे श्रावण सुदि चौथ को ही पर्युषणा करना युक्त है पर भादरवा सुदि चौथ को युक्त नहीं, क्यों कि इससे अस्सी दिन होने के कारण 'वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कते'
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