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फिर इंद्रने एक तीर्थकर की चिता पर, एक गणधरों की चिता पर और एक शेष मुनियों की चिता पर एवं तीन रत्नमय स्तूप करवाये । ऐसा करके शक आदि देव नन्दीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव कर के अपने २ विमान में जाकर अपनी २ सभा में वज्रमय डब्बों में उन दाढा आदि को रख कर गंधमालादि से उनकी पूजा करने लगे।
सर्व दुःख से मुक्त हुए अर्हन कौलिक श्री ऋषभदेव प्रभु के निर्वाण बाद तीन वर्ष साढ़े आठ महीने वीतने पर-बैतालीस हजार वर्ष तथा तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अधिक इतना काल कम एक सागरोपम कोटाकोटि बीतने पर श्रमण भगवान् श्री महावीर प्रभु निर्वाण पाये । उसके बाद नवसौ अस्सी वर्ष पर पुस्तक वाचना हुई । यह श्री ऋषभदेव प्रभु का चरित्र पूर्ण हुआ।
इस प्रकार जगद्गुरु भट्टारक श्री हीरविजयसूरीश्वर के शिष्यरत्न महोपाध्याय श्री कीर्तिविजय गणि के शिष्योपाध्याय श्री विनयविजय गणि की रची हुई कल्पसूत्र पर सुबोधिका नाम की टीका में यह सातवाँ व्याख्यान समाप्त हुआ, एवं जिनचरित्ररूप प्रथम वाच्य व्याख्यान पूर्ण हुआ।
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