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श्री
सातवां
व्याख्यान
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद
॥१२२॥
उनमें से एक घड़ा उठा कर श्रेयांस प्रभु समक्ष हो कर बोला-"प्रभो! यह योग्य भिक्षा ग्रहण करो"। उस का वक्त प्रभुने भी हाथ पसार दिये । श्रेयांसने घड़े का सारा रस बहरा दिया परन्तु एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी। इसकी शिखा ऊपर को ही बढ़ती गई। कहा भी है कि 'जिसके हाथों में हजारों घड़े समा जायें या स्तरामद समा जाय ऐसी लब्धि जिसे प्राप्त हो वही करपात्र होता है । एक वर्ष तक प्रभुने मिक्षा ग्रहण नहीं की उस गे पर कवि घटना करता है-प्रभुने अपने दाहिने हाथ से कहा-अरे! तू भिक्षा क्यों नहीं लेता ? तब वह कहतास कि-हे प्रभो ! मैं देनेवाले के हाथ नीचे किस तरह जाऊं? क्यों कि पूजा, भोजन, दान, शान्तिकर्म, कला, पाथिों ग्रहण, कुंभ स्थापना, शुद्धता, प्रेक्षणादि कामों में मैं वरता जाता हूं। यों कह कर जब दाहिना हाथ चुप रहा तयेंव प्रभुने बांये हाथ को कहा-माई ! तूं ही भिक्षा ले। जवाब में बांया हाथ बोला-महाराज ! मैं तो रणसंग्राम में सन्मुख होनेवाला हूं, अंक गिनने में और बांई करवट से सोना हो तब सहाय करनेवाला हूं। यह दाहिना हाथ तो जुए आदि व्यसनवाला है। फिर दाहिना बोला-'मैं पवित्र हूं, तूं पवित्र नहीं है। फिर प्रभुने दोनों को। समझाया कि-तुमने दोनोंने मिलकर ही राज्यलक्ष्मी उपार्जन की है, तथा अर्थीजनों के समूह को दान देकर कृतार्थ किया है अतः तुम निरन्तर संतुष्ट हो तथा दान देनेवालों पर दया लाकर अब दान ग्रहण करो । इस प्रकार प्रभुने एक वर्षतक दोनों हाथों को समझा कर श्रेयांसकुमार से ताजा इक्षु रस ग्रहण किया। ऐसे श्री ऋषभप्रभु तुम्हारा रक्षण करो।
॥ १२२॥
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