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वाग् और मुष्टि तथा दंडरूप यह चार प्रकार का युद्ध नियत किया । उसमें भी भरतचक्री का पराजय हुआ। फिर क्रोधांध होकर भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा, परन्तु एक गोत्री पर चक्र न चलने के कारण उस चक्रने उसका अनिष्ट न किया । उस वक्त क्रोधित हो भरत को मार डालने की इच्छा से मुक्का उठा कर सन्मुख दौड़ते हुए बाहुबलिने विचार किया " अरे! पिता तुल्य बड़े भाई को मारना मेरे लिए सर्वथा अनुचित है, और उठाया हुआ हाथ निष्फल भी न जाना चाहिये" यों विचार कर हाथ को अपने मस्तक पर रख कर केशलुंचन कर
और सर्व सावध का त्याग कर दीक्षित हो वहाँ पर ही ध्यान लगा दिया। यह देख कर भरतने उनके पैरों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा याचना की और फिर वे अपने घर चले गये । बाहुबलि भी "दीक्षापर्याय से बड़े छोटे भाईयों को कैसे नमूं? इस लिए जब केवलज्ञान होजायगा तब ही प्रभु के पास जाउँगा" यों विचार कर एक वर्ष तक वहाँ पर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे । वर्ष के बाद प्रभु द्वारा भेजी गई अपनी बहिनौने “हे भाइ ! हाथी से नीचे उतरो" ऐसे कह कर प्रतिबोधित किया । फिर बाहुबलिने ज्यों पैर उठाया त्योंही उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । वहाँ से प्रभु के पास जाकर लंबे समय तक विचर कर प्रभु के साथ ही मोक्ष पधारे । इधर भरत चक्रवर्ती भी बहुत समय तक चक्रवर्ती लक्ष्मी को भोग कर एक दिन सीसमहल में अंगूठी रहित अपनी अंगूली को देख अनित्यता की भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर दश हजार राजाओं के साथ देवता द्वारा दिये हुए मुनिवेश को ग्रहण कर भरत राजा चिरकाल तक विचर कर मोक्ष सिधारे ।
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