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इधर श्रीनेमिकुमार को परिवार सहित समुद्रविजय राजा कहने लगे - ऋषभदेव आदि जिनेश्वर भी विवाह करके मोक्ष गये हैं तो क्या हे कुमार ! तुम्हारा ब्रह्मचारी का पद कुछ उन से भी ऊंचा होगा ? यह सुन कर श्रीनेमिनाथने कहा - पिताजी ! मेरे भोगावली कर्म क्षीण हो गये हैं, तथा जिस में एक स्त्री के संग्रह में अनन्त जीव समूह का संहार होता है, जो संसार को दुःखमय बनाता है उस विवाह में आप को इतना आग्रह क्यों होता है ? यहाँ कवि उत्प्रेक्षा करता है - मैं मानता हूँ कि स्त्रियों से विरक्त श्रीनेमिनाथ प्रभु विवाह के बहाने से यहाँ आकर पूर्व के प्रेम से राजीमती को मोक्ष लेजाने का संकेत कर गये थे । प्रभु की दीक्षा और केवलज्ञान
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दक्ष श्री नेमिनाथ प्रभु तीन सौ वर्ष तक कुमारपन में गृहस्थावास में रहे । इतने में ही लोकान्तिक देवोंने आकर इस प्रकार की इष्ट वाणियों से कहा- हे कामदेव को जीतनेवाले, सर्व जीवों को अभयदान देनेवाले प्रभो ! आप जयवन्ते रहो और सर्व के कल्याण के लिए तीर्थ की प्रवृत्ति करो । प्रभु वार्षिक दान देकर दीक्षा तीनों भुवन को आनन्द देवेंगे यों कहकर लोगोंने समुद्रविजय राजा आदि को उत्साहित किया। फिर सब संतुष्ट हुए, गोत्रियों को धन बांटकर दिया। संवत्सरी दानविधि श्रीवीर प्रभु के समान ही जान लेना ।
इस वर्षाकालका पहला महीना था, दूसरा पक्ष था अर्थात् श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की छठ के दिन प्रथम पहर में उत्तरकुरा नामक पालकी में बैठे हुए जिस के सामने देव, मनुष्य और असुरों का समूह चल रहा है,