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हिन्दी बजुवाद । ॥११५॥
प्रभु का च्यवन और जन्म कल्याणक
सातवा उस काल उस समय में अर्हन् कौलिक श्रीऋषभदेव प्रभु ग्रीष्मकाल के चौथे मास में. सातवें पक्ष में. INव्याख्यान. आषाढ मास की कृष्ण चौथ के दिनं तैतीस सागरोपम की स्थितिवाले सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान से अंतर रहित च्यवकर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, इक्ष्वाकु भूमि में, नाभि नामक कुलकर की मरुदेवा नामा स्त्री की कुक्षि में मध्य रात्रि के समय दिव्य आहारादि का त्याग कर गर्भरूप से उत्पन्न हुए। ___अर्हन् कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु गर्भ में भी तीन ज्ञान सहित थे। उसके द्वारा, मैं यहाँ से चबुंगा यह जानते थे । मरुदेवी माताने स्वप्न देखे सो गयवसह, इत्यादि गाथा कहकर, श्रीवीरप्रभु के चरित्र समान ही जान लेना चाहिये । परन्तु यहाँ इतना विशेष है कि मरुदेवी माताने प्रथम वृषभ को मुख में प्रवेश करते देखा और दूसरे जिनेश्वरों की माता प्रथम हाथी को देखती हैं। वीर प्रभु की माताने प्रथम सिंह को देखा था। मरुदेवीने स्वमों की हकीकत नाभिकुलकर से कही, क्यों कि उस समय स्वमपाठक नहीं थे। इस से नामिकुलकरने ही स्वयं स्वमों का फल कहा ।
उस काल और उस समय अर्हन् कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु का ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास में, पहले पक्ष में अर्थात् चैत्र मास की कृष्ण अष्टमी के दिन नव महीने परिपूर्ण होने पर यावत् उत्तराषाढा नक्षत्र में चंद्रयोग १ कोशला-अयोध्या, वहां जन्मने से कौशलिक । २ गुजराती जेठ वदि ।
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