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श्री
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छद्रा
व्याख्यान.
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद।
॥६९॥
की वर्षा की।
वहाँ से प्रभु विहार कर मोराकनामा सन्निवेश पधारे, वहाँ सिद्धार्थ राजा का मित्र दुइजंत तापस रहता था उसके आश्रम में पधारे। भगवान को देखकर तापस सामने आया, पूर्व परिचय के कारण उससे मिलने के लिए प्रभुने हाथ पसार दिये। उसकी प्रार्थना से प्रभु एक रात वहाँ रहकर निरागचित्त होते हुए भी उसके आग्रह से वहाँ चातुर्मास रहने का मंजूर कर अन्यत्र विहार कर गये । आठ मास तक विचर कर फिर वहाँ आगये । कुलपति द्वारा दी हुई एक घास की कुटिया में चातुर्मास रहे । वहाँ पर बाहर घास न मिलने से अन्य तापसों द्वारा अपनी २ झोपड़ी से निवारण की हुई गायें निःशंकतया प्रभु की झोंपड़ी का घास खाने लगी । झोंपड़ी के स्वामीने कुलपति के पास फरयाद की। कुलपति आकर प्रभु को कहने लगा कि-हे वर्धमान ! पक्षी भी अपने | २ घौंसले का रक्षण करने में समर्थ होते हैं, फिर आप राजपुत्र होकर अपने आश्रम को रक्षण करने में क्यों | असमर्थ हैं ? प्रभुने विचारा कि मेरे यहाँ रहने से इसे अप्रीति होती है, यह विचार आषाढ शुदि पूर्णिमा से लेकर केवल पंद्रह दिन गये बाद वर्षाकाल में ही प्रभु पाँच अभिग्रह धारण कर अस्थिग्राम की ओर चले गये। वे पाँच अभिग्रह ये हैं।
जहाँ किसी को अप्रीति पैदा हो ऐसे स्थान में न रहूँगा १. सदैव प्रतिमाधारी हो कर रहूँगा २, गृहस्थी का विनय न करूँगा ३, सदा मौन रहूँगा ४, और हमेशह हाथ में ही आहार करूँगा ५.।
॥ ६९॥
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