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छट्ठा व्याख्यान.
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद।
॥९१॥
प्रकार अमृत आत्मा भी मूर्त कर्म से लाभ या हानि नहीं उठा सकता, इस तरह कर्म का अभाव प्रतीत होता है, यह तेरे मन में है, परन्तु हे अग्निभूति ! यह अर्थ युक्त नहीं है। क्यों कि वेद के वे पद पुरुष की स्तुति के हैं, वेद के पद तीन प्रकार के होते हैं, जिन में कितनेएक विधि प्रतिपादन करनेवाले हैं, जैसे कि स्वर्ग की इच्छा करनेवाले मनुष्य को अग्निहोत्र करना चाहिये, इत्यादि । कितनेएक अनुवादसूचक होते हैं, जैसे कि बारह मास का एक वर्ष होता है, इत्यादि । और कितनेएक पद स्तुतिरूप होते हैं, जैसे कि उपरोक्त पद तेरे संदेहवाला है, इत्यादि। इस पद से पुरुष की अर्थात् आत्मा की महिमा दिखलायी है, परन्तु कर्मादि का निषेध नहीं किया, जैसे"जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके सर्व भूतमयो विष्णु-स्तस्माद्विष्णुमयं जगत् ॥१
अर्थात जल में विष्णु, स्थल में विष्णु, पर्वत के मस्तक पर विष्णु और सर्व भूतमय विष्णु है अतः यह जगत भी विष्णुमय ही है । इस वाक्य से विष्णु का महिमा कथन किया है परन्तु अन्य वस्तुओं का निषेध नहीं किया । तथा अमूर्तात्मा को मृत कर्म से लाभ और हानि क्योंकर होसकती है ? यह भी शंका ठीक नहीं है । क्यों कि मूर्तिमान् मद्यादिक से अमूर्त आत्मा को नुकसान होता है और ब्राह्मी आदि से लाभ होता देख पड़ता है। तथा यदि कर्म न हों तो एक सुखी, दूसरा दुःखी, एक श्रीमान् शेठ, दूसरा गरीब नोकर इत्यादि संसार की प्रत्यक्ष विचित्रता कैसे संभवित होसकती है ? प्रभु के ये वचन सुनकर अग्निभूति का भी संदेह दूर
॥ ९१ ।।
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