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मोक्षमार्ग में प्रवर्तते हुए जीव को स्नेह, वज्र की सांकल के समान है, क्यों कि स्नेह के कारण ही प्रभु महावीर के जीते जी गौतमस्वामी को केवलज्ञान पैदा न हुआ ।
फिर प्रातः काल होने पर इंद्रादि देवोंने महोत्सव किया । यहाँ पर कवि कहता है कि "अहंकारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये । विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्री गौतमप्रभोः " ॥ १ ॥ गौतम प्रभु का सब कुछ आश्चर्यकारक ही हुआ, उनका अहंकार उल्टा बोध के लिए हुआ, राग भी गुरुभक्ति के लिए हुआ और विषाद केवलज्ञान के लिए हुआ ! ! !
श्री स्वामी बारह वर्ष पर्यन्त केवलिपर्याय को पाल कर और सुधर्मस्वामी को दीर्घायु जानकर गण सौंप कर मोक्ष सिधारे । फिर सुधर्मस्वामी को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे भी उसके बाद आठ वर्ष तक विचर कर आर्य जंबूस्वामी को अपना गण सौंपकर मोक्ष पधारे ।
जिस रात्रि में श्रमण भगवान् श्रीमहावीरस्वामी मोक्ष गये, यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए उस रात्रि को नव मल्लकी जाति के काशी देश के राजा तथा नव लेच्छकी जाति के कोशल देश के राजाओं का किसी कारण वहाँ पर संमिलन था । वे अठारह ही चेड़ा राजा के सामन्त कहलाते थे । उन्होंने उस अमावास्या के दिन संसार रूप समुद्र से पार करनेवाला उपवास पौषध व्रत किया हुआ था। अब संसार से भाव उद्योत चला गया अतः हम द्रव्य उद्योत करेंगे यह विचार कर उन्होंने दीपक जलाये । उस दिन से दीवाली का महोत्सव प्रचलित
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