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पार्श्वनाथ भगवान् का च्यवन और जन्म कल्याणक । उस काल और उस समय में पुरुषों में प्रधान अर्हन श्रीपार्श्वनाथ प्रभु जो ग्रीष्म काल का पहला मास, पहला पक्ष, अर्थात् चैत्र का कृष्णपक्ष, उस चैत्र मास की कृष्ण चौथ के दिन बीस सागरोपम की स्थितिवाले प्राणत नामक दशवें देवलोक से अन्तर रहित च्यवकर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वाणारसी नगरी में अश्वसेन राजा की वामा नाम की रानी की कुक्षि में देव सम्बन्धी आहार, भव, स्थिति और शरीर को त्याग कर, मध्य रात्रि के समय विशाखा नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग आजाने पर गर्भतया उत्पन्न हुए। वे पुरुषप्रधान अर्हन् श्रीपार्श्वनाथ गर्भ में ही तीन बान सहित थे । " मैं स्वर्ग से चलूँगा यह जानते थे, चलते हुए नहीं जानते थे और चले बाद मैं चला हूँ यह भी जानते थे"। प्रथम श्रीमहावीर प्रभु के च्यवन समय कथन किये पाठ मुजब स्वमदर्शन, स्वमफल आदि सब कुच्छ जहाँतक वामा देवी वापिस अपने शयन घर तरफ आई और सुखपूर्वक गर्भ को पालन करने लगी, समझ लेना चाहिये ।।
अब उस काल और उस समय पुरुषप्रधान अर्हन् श्रीपार्श्वनाथ प्रभु जो शरद् काल का दूसरा महिना, तीसरा पक्ष, अर्थात् पोष मास का कृष्ण पक्ष, उस पोष मास की वदि दशमी के दिन नव महिने और साढ़े सात दिन परिपूर्ण होने पर मध्य रात्रि में विशाखा नक्षत्र में चंद्रयोग प्राप्त होने पर निरोग शरीरवाली वामादेवी की कुक्षी से प्रभु रोग रहित पुत्रतया उत्पन्न हुए | जिस रात्रि में पुरुषप्रधान अर्हन् श्रीपार्श्वनाथ प्रभु जन्मे वह
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