________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir
छड्डा व्याख्यान.
कल्पसूत्र
हिन्दी
बनुवाद।
कर फिर यहाँ न आना पड़े ऐसे ऊर्ध्व प्रदेश में गये । जन्म, जरा और मृत्यु के कारणरूप कर्मों को छेदन करने- वाले, सर्वार्थ को सिद्ध करनेवाले, तत्वार्थों को जाननेवाले, तथा भवोपनाही कर्मों से मुक्त होनेवाले, सर्व दुःखों का अन्त करनेवाले, सर्व संतापों के अभाव से परिनिवृत्त होकर प्रभुने शारीरिक और मानसिक सर्व दुःखों का नाश कर दिया।
जिस वर्ष में प्रभु निर्वाण पद को प्राप्त हुए वह चंद्र नामक दूसरा संवत्सर था । उस कार्तिक मास का प्रीतिवर्धन नाम था । वह पक्ष नंदीवर्धन नामा था । उस दिन का नाम अग्निवेश्य था तथा दूसरा नाम उसका उपशम था। देवानन्दा उस अमावास्या की रात्रि का नाम था। उसका दूसरा नाम निरति था । प्रभु जब निर्वाण पाये तब अर्चनामक लव था । मुहूर्त नामक प्राण था। सिद्ध नामक स्तोक था, नाग नामा करण था । यह शकुनि आदि चार करणों में से तीसरा करण था, क्यों कि अमावास्या के उत्तरार्ध में वही करण होता है। सर्वार्थसिद्ध नामक मुहूर्त में स्वाति नामा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आजाने पर प्रभु कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् सर्व दुःखों से मुक्त होगये ।
अब संवत्सर, मास, दिन, रात्रि तथा मुहूर्त के नाम सूर्यप्रज्ञप्ति में निम्न प्रकार दिये हैं । एक युग में पाँच संवत्सर होते हैं, उनके नाम चंद्र, चंद्र, अभिवर्धित, चंद्र और अभिवति । तथा अभिनन्दन, सुप्रतिष्ठ, विजय प्रीतिवर्धन, श्रेयान् , निशिर, शोबन, हैमवान् , वसन्त, कुसुम, संभव, निदाघ और वनविरोधी ये श्रावणादि
॥ ९५॥
For Private And Personal