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का पांचा व्याख्यान.
भी अल्पमत्र हिन्दी बनुवाद
॥७५॥
उस गोशालकने प्रभु से कहा कि मैं आपका शिष्य हूँ। फिर दूसरे पारणे में नन्दसेठने पक्वान्न आदि से, तीसरे पारणे में सुनन्दा सेठने परमान (खीर) आदि से प्रभु को आहार कराया। चौथे पारणे को प्रभु कोल्लाग सन्निवेश में पधारे । वहाँ बहुल नामक ब्राह्मणने प्रभु को खीर से पारणा कराया। वहाँ भी पंच दिव्य प्रकट हुए ।
अब गोशाला प्रभु को उस जुलाहे की शाला में न देख सारे राजगृह नगरमें उन्हें ढूँढता फिरा । कहीं पर भी न मिलने पर ब्राह्मणों को उपकरण देकर और मुख तथा मस्तक मुंडवा कर भगवान से कोल्लागमें जामिला और "अब से मुझे आपकी दीक्षा हो" यों कह कर प्रभु के साथ ही रहने लगा। प्रभु भी उस शिष्य के साथ सुवर्णखिल गाँव की ओर चले ! मार्ग में ग्वाले एक बड़ी हाँडी में खीर पका रहे थे। यह देख गोशाला प्रभु से बोला कि यहाँ ही भोजन करके चलेंगे । सिद्धार्थने कहा कि इन की हँडिया फूट जायगी, गोशालेने उन से कह दिया अतः उन के अनेक प्रयत्न करने पर भी हाँडी फूट गई । इस से गोशालाने यह मत निश्चय कर लिया कि होनहार होती ही है। वहाँ से प्रभु ब्राह्मणग्राम में गये। वहाँ नन्द और उपनन्द इन दो भाईयों के नाम से दो मुहल्ले थे। प्रभुने नन्द के मुहल्ले में प्रवेश किया, प्रभु को नन्दने बहराया। गोशाला उपनन्द के महल्ले में गया था, वहाँ उसे उपनन्दने वासी अन्न खिलाया, इस से क्रोधित हो गोशालाने शाप दिया कि यदि मेरे धर्माचार्य का तपतेज हो तो इस का घर जल जाय । प्रभु की महिमा देखने के लिए समीपवर्ती देवोंने उसका घर जला दिया।
॥७५॥
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