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किसी भी जगह पर प्रतिबन्ध नहीं है, यह प्रतिबन्ध निम्न चार प्रकार का होता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । उसमें भी द्रव्य से सचित्त, अचित्त और मिश्र यह तीन प्रकार का होता है। सचित्त द्रव्य-स्त्री आदि । अचित्त द्रव्य - आभूषणादि तथा मिश्र द्रव्य - आभूषणादि से युक्त स्त्री आदिक । क्षेत्र से किसी ग्राम में, नगर में, अरण्य - जंगल में, धान्य उत्पन्न होनेवाले क्षेत्र में, खल-धान्य को छिलके से जुदा करने के स्थान में, घर, या घर के आंगन में अथवा आकाश में, काल से समय जैसे अतिसूक्ष्म काल में, आवली - असंख समयोंवाली आवली में, तथा श्वासोश्वासवाले काल में, स्तोक-सात उकासप्रमाणवाले काल में, क्षण-घड़ी के छठवें भागप्रमाणवाले काल में, लव- सात स्तोकप्रमाणवाले काल में, एवं मुहूर्त्त, रात्रि, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन अथवा वर्ष पर्यन्त तकके काल में, तथा युगादि दीर्घकाल में, अब भाव से क्रोध में, मान में, माया में, लोभ में, भय में, हास्य में, प्रेम में, द्वेष में, क्लेश में, मिध्याकलंक देने में, चुगली में, दूसरों की निन्दा में, मोहनीय के उदय से पैदा होती हुई रति अरति में, कपट सहित मृषावाद में, तथा मिथ्यात्वरूपी अनेक दुःखोंके हेतुरूप शल्य में । इस प्रकार पूर्वोक्त स्वरूपवाले द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में, प्रभुकों कहीं पर भी प्रतिबन्ध नहीं था ।
श्री महावीर प्रभु वर्षाकाल के चार मास छोड़कर शेष आठ मास में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक रहते थे । प्रभु कुहाड़े का घाव और चंदन का लेप करनेवाले पर भी समानभाव रखनेवाले थे । तृण, मणि, सुवर्ण और पत्थर में एक समान दृष्टि रखनेवाले थे, सुःख दुःख में भी समान दृष्टिवाले, इस लोक
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