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मन में जीव के विषय में संदेह है ? तू वेद पदों के अर्थ को ठीक तरह नहीं विचारता । उन वेदपदों को सुन । फिर प्रभु द्वारा उच्चारण किये गये वेदपदों का ध्वनि मथन करते समुद्र के समान, अथवा गंगापूर के समान, या आदि ब्रह्म की वाणी के समान शोभता था। वेद के पद नीचे मुजब थे।
"विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीति"
प्रथम तो तू उन पदों का ऐसा अर्थ करता है कि "विज्ञानघन"-गमनागमन की चेष्टावाला आत्मा "एतेभ्यो भूतेभ्यः "-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, इन पाँचों भूतों से मद्यांग में मदशक्ति के समान उत्पन्न होकर उन भूतों के साथ ही नाश पाता है, अर्थात् पानीमें बुलबुले के समान उन्हीमें लीन होजाता है । इस लिए पंच भूतों से भिन्न आत्मा न होनेके कारण प्रेत्यसंज्ञा नहीं है। अर्थात् मृत्यु के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं है । परन्तु यह अर्थ अयुक्त है। हमारे कहे मुजब अब तू उनका ठीक अर्थ सुन । “विज्ञानघन" इस पद का क्या अर्थ है ? 'विज्ञान'-ज्ञान दर्शन का उपयोगात्मक विज्ञ आत्मा भी तन्मय होनेसे विज्ञानघन कहा जाता है। क्यों कि आत्मा के प्रत्येक प्रदेश के प्रति ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। अब वह विज्ञानघन उपयोगात्मक आत्मा कथंचित् भूतों से या भूतों के विकाररूप घटादिसे उत्पन्न होता है। घटादिक ज्ञानसे
१ इस रीचा का सार वह है-मनुष्य जिस वस्तु को सामने देखता है उसमे उसका आत्मा तल्लीन होजाता है, उस वस्तु को | हटा लेनेसे मनुष्य का ख्याल दूसरी तर्फ लग जानेसे पहले का ज्ञान बदल कर दूसरी चीज का ज्ञान होजाता है पहली संज्ञा नहीं रहती।
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