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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद ।।
॥ ६८ ॥
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वीर वीर कहकर आप के दर्शन से तथा प्रेम के प्रकर्ष से हम अत्यानन्द प्राप्त करते थे, परन्तु निराश्रित हुए अब हम किसका आश्रय लेंगे ? तथा हे बान्धव ! हमारी आँखों को अमृतांजन के समान अति प्रिय आप का दर्शन अब हमें कब होगा ? हे प्रौढ गुणों से शोभनेवाले ! निराग चित्त होते हुए भी क्या आप कभी हमें याद करेंगे ? इस प्रकार बोलते हुए अश्रु पूर्ण नेत्र हो बड़े कष्ट से नन्दीवर्धन वापिस घर गये ।
अब दीक्षा के समय देवोंने जो प्रभु की गोशीर्षचंदन और पुष्पादि से पूजा की थी उसकी सुगन्ध प्रभु के शरीर पर चार महीने से भी कुछ दिन अधिक रही थी । उस सुगन्ध से आकर्षित हो अनेक भ्रमर प्रभु के शरीर पर डंक मारते हैं । कितनेएक युवक प्रभु के पास आकर सुगन्ध गुटिकायें मांगते हैं परन्तु प्रभु तो मौन रहते हैं इससे वे प्रभु को उपसर्ग करते हैं। युवती स्त्रियाँ भी प्रभु को अत्यन्त रूपवान् और सुगन्धित शरीरखाला देख कामविवश होकर अनुकूल उपसर्ग करती हैं, परन्तु प्रभु मेरुपर्वत के समान निश्चल होकर सब कुछ सहन करते हुए विचरते हैं । उस दिन जब दो घड़ी दिन बाकी रहा था तब प्रभु कुमारग्राम में पहुँचे और as at रात्रि को काउसग्ग ध्यान में रहे ।
उपसर्गों की शुरूआत
उस समय जहाँ प्रभु खड़े थे वहाँ ही हल चलानेवाला एक ग्वाला सारा दिन हल चलाकर संध्यासमय बैलों को प्रभु के पास छोड़कर घर पर गायें दुहने चला गया। वापिस लौट कर उसने प्रभु से
पूछा कि हे
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छडा व्याख्यान.
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