SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ।। ॥ ६८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वीर वीर कहकर आप के दर्शन से तथा प्रेम के प्रकर्ष से हम अत्यानन्द प्राप्त करते थे, परन्तु निराश्रित हुए अब हम किसका आश्रय लेंगे ? तथा हे बान्धव ! हमारी आँखों को अमृतांजन के समान अति प्रिय आप का दर्शन अब हमें कब होगा ? हे प्रौढ गुणों से शोभनेवाले ! निराग चित्त होते हुए भी क्या आप कभी हमें याद करेंगे ? इस प्रकार बोलते हुए अश्रु पूर्ण नेत्र हो बड़े कष्ट से नन्दीवर्धन वापिस घर गये । अब दीक्षा के समय देवोंने जो प्रभु की गोशीर्षचंदन और पुष्पादि से पूजा की थी उसकी सुगन्ध प्रभु के शरीर पर चार महीने से भी कुछ दिन अधिक रही थी । उस सुगन्ध से आकर्षित हो अनेक भ्रमर प्रभु के शरीर पर डंक मारते हैं । कितनेएक युवक प्रभु के पास आकर सुगन्ध गुटिकायें मांगते हैं परन्तु प्रभु तो मौन रहते हैं इससे वे प्रभु को उपसर्ग करते हैं। युवती स्त्रियाँ भी प्रभु को अत्यन्त रूपवान् और सुगन्धित शरीरखाला देख कामविवश होकर अनुकूल उपसर्ग करती हैं, परन्तु प्रभु मेरुपर्वत के समान निश्चल होकर सब कुछ सहन करते हुए विचरते हैं । उस दिन जब दो घड़ी दिन बाकी रहा था तब प्रभु कुमारग्राम में पहुँचे और as at रात्रि को काउसग्ग ध्यान में रहे । उपसर्गों की शुरूआत उस समय जहाँ प्रभु खड़े थे वहाँ ही हल चलानेवाला एक ग्वाला सारा दिन हल चलाकर संध्यासमय बैलों को प्रभु के पास छोड़कर घर पर गायें दुहने चला गया। वापिस लौट कर उसने प्रभु से पूछा कि हे For Private And Personal छडा व्याख्यान. ।। ६८ ।।
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy