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एक दिन मरीचि बीमार पड गया, उस समय कोई भी उसे पानी तक देने को न आया, तब उसने सोचा कि-देखो इतने परिचित होने पर भी ये साधु बड़े बेपरवाह हैं। यदि अब के मैं निरोगी हो जाऊँ तो ऐसे प्रसंग पर सेवा करनेवाला एक शिष्य अवश्य बनाऊँगा। कुछ दिन बाद मरीचि निरोगी होगया। एक दिन एक कपिल नामक राजकुमार मरीचि की देशना सुन कर वैराग्य को प्राप्त हुआ । मरीचिने कहा-कपिल ! जाओ, साधुओं के पास जाकर दीक्षा धारण करो । कपिल बोला-स्वामिन् ! मैं तो आपके दर्शन में व्रत ग्रहण करूँगा। मरीचि बोला--कपिल ! साधु-मन, वचन, काया के दण्ड से रहित हैं, मैं वैसा नहीं हूँ, इत्यादि मरीचिने अपनी समस्त त्रुटियां बतलादी, तथापि वह भारी कर्मी कपिल चारित्र से पराङ्मुख होकर बोला-क्या आपके दर्शन में सर्वथा धर्म नहीं है ? यह सुनकर मरीचि ने विचारा कि-यह मेरे योग्य ही शिष्य है जो सब बातें कहने पर भी नहीं मानता। उसके प्रश्न के उत्तर में मरीचि ने कहा कि-कपिल ! जैन दर्शन में भी धर्म है और मेरे दर्शन में भी। कपिलने मरीचि के पास दीक्ष ले ली। मरीचिने जो यह कहा कि जैन दर्शन में भी धर्म है और मेरे दर्शन में भी, इस उत्सूत्र प्ररूपणा से उसने कोटाकोटी सागर प्रमाण संसार उपार्जन कर लिया । इस कर्म की आलोचना किये बिना ही चौरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर वह मर कर चौथे भव में ब्रह्मलोक नामा स्वर्ग में दश सागरोपम की स्थितिवाला देव बना । वहाँ से च्यव कर पाँचवें भव में कोल्लाक नामक ग्राम में अस्सी लाख पूर्व की आयुवाला ब्राह्मण हुआ। अति विषयासक्त हुआ, अन्त में त्रिदंडी होकर मरा । बीच में बहुत कालतक
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