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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
तीसरा व्याख्यान.
अनुवाद।
अब छठे स्वम में त्रिशला माता पूर्णचंद्र को देखती है। वह चंद्र गोदुग्ध के सदृश, झाग, जलकण, चाँदी के कलश समान सफेद है। तथा हृदय और नेत्रों को आनन्द देनेवाला, सर्व कला युक्त, अन्धकार नाशक, शुक्लपक्ष में वृद्धि पानेवाला, कुमुद वन को विकसित करनेवाला, रात्रि शोभाकारक, समुद्र जलवर्धक, शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष द्वारा मासादि का प्रमाणकारक, सूर्य के प्रसरते हुए ताप से मूर्च्छित हुए चंद्रविकाशि कमलों को अपनी अमृतमय किरणों से सत्वर विकस्वर करनेवाला, शीशे के समान उज्ज्वल, ज्योतिष मुखमंडन, कामदेव के शरों को पूर्ण करनेवाला-अर्थात् जिस प्रकार कोई एक शिकारी इच्छित शर प्राप्त कर निःशंक होकर मृगादि पर प्रहार करता है वैसे ही कामदेव भी चंद्रोदय को प्राप्त कर विरही जनोंको अधिक पीड़ित करता है । इसी कारण कविने चंद्र को निशाचर-राक्षस कह कर उपालंभ-उलहना दिया है-रजनिनाथ ! निशाचर ! दुर्मते! विरहिणां रुधिरं पिबसि ध्रुवम् । उदयतोऽरुणता कथमन्यथा तव कथं च तके तनुताभृतः ॥ १ ॥ अर्थ-हे निशाचर दुर्मते रजनिनाथ-चन्द्र ! निश्चय ही तू विरही जनों का खून पीता है, यदि ऐसा न हो तो उदय के समय तेरा लाल मुख और उनके शरीर में कृशता क्यों होती है तथा विशालाकाश का मानो चलत स्वभाववाला वह तिलक ही न हो एवं रोहिणी* के हृदय को वल्लभ वह चंद्र है। इस प्रकार छठे स्वम में त्रिशला क्षत्रियाणीने सौम्य पूर्ण चंद्र को देखा । ६ ।
* रोहिणी एक नक्षत्र है और चंद्र के साथ उसका स्वामी सेवक भाव है तथापि लौकिक कहावत ऐसी है कि रोहिणी चंद्र की स्त्री है।
॥३४॥
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