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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी अनुवाद |
॥ ४७ ॥
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वृक्ष नहीं ऊगता, त्यों पुण्य रहित प्यासे मनुष्य को अमृत की सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती। अरे! सदैव प्रतिकूल रहनेवाले दैव को भी धिकार है। हे वक्र दुर्दैव ! तूने यह क्या किया ? मेरे मनोरथरूपी वृक्ष को जड़ से ही उखाड़ फेंका ? कलंक रहित मुझे नेत्रयुग्म दे कर छीन लिया ! इस पापी दैवने निधि रत्न दे कर मुझ से छीन लिया ? इस दुर्दैवने मुझे मेरु पर्वत के शिखर पर चढ़ा कर नीचे पटक दिया ! तथा इस निर्लज्जने भोजन का भाजन परोस कर वापिस कैंच लिया । हे विधाता ! मैंने भवान्तर में या इस भव में ऐसा क्या अपराध किया है ? जिस से तू ऐसा करते हुए उचित अनुचित का विचार नहीं करता ! अब मैं क्या करूँ !! कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ !! हा इस दुर्दैवने मुझे भस्म कर दी, मूच्छित कर दी। अब मुझे इस राज्य की क्या जरुरत है ? अब विषयजन्य कृत्रिम सुखों से मुझे क्या लाभ ? अब इन गगनस्पर्शीमहलों और दुकूल शय्या के सुखों में क्या रक्खा हैं ? हाथी, वृषभादि स्वप्नों से सूचित हुए पवित्र, तीन जगत के पूजनीक पुत्र के बिना अब मुझे किसी भी चीज की क्या जरुरत है ? इस असार संसार को धिक्कार है और दुःख से सने हुए इन विषय सुख के क्लेशों को भी धिक्कार है ! तथा सहत से लिप्त हुई खड्ग की धारा को चाटने के समान संसार के लाडों को भी धिक्कार है। ऋषियोंने जो धर्मशास्त्रों में कथन किया है वैसा कुछ भी पूर्व भव में मैंने दुष्कर्म किया होगा । पशु पक्षियों या मनुष्य के बालकों का उनकी माताओं से वियोग कराया होगा । अथवा मैंने अधम बुद्धिवालीने छोटे बछड़ों को उनकी मातासे वियोग कराया होगा ! या उन्हें दूध पीने का अन्तराय किया या कराया
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चौथा
व्याख्यान.
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