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श्री
कल्पसूत्र
पांचवां व्याख्यान
हिन्दी
अनुवाद।
॥
३॥
केवलज्ञान उत्पन्न हो तब तक टिकनेवाला अवधिज्ञान और अवधिदर्शन था। उससे वे अपने अनुत्तर एवं आभोगिक ज्ञानदर्शन से अपने दीक्षा समय को स्वयं जानते थे। अब वे सोना, चाँदी, धन, राज्य, देश तथा सेना, वाहन, धन के भंडार, अन्न के भंडार, नगर, अन्तःपुर तथा देशवासी जनसमूह को त्याग कर, एवं रत्न, मणि, मोती, शंख, प्रवाल, स्फटिक, रक्त रत्न, हीरा, पन्नादि सार पदार्थ त्याग कर अर्थात् उन सार वस्तुओं को भी असार समझ एवं अस्थिर जान कर अर्थीजनों को दान करते हुए, जिसको जैसा देना उचित समझा उसको वैसा ही दे कर, गोत्रिय जनों को विभाजित कर देकर प्रभु निकलते हैं । इस सूत्र से प्रभु का वार्षिक दान सूचित किया है। दीक्षा के दिन से पहले एक वर्ष शेष रहने पर प्रातःकाल उठकर प्रभु वार्षिक दान शुरू करते हैं और वह दान सूर्योदय से लेकर मध्याह्न समय तक देते हैं । इस प्रकार प्रतिदिन प्रभु एक करोड़ और आठ लाख सुवर्णमुद्राओं का दान देते हैं। जिसको चाहिये वह मांगे ऐसी घोषणापूर्वक जिसे जो चाहता सो देते हैं । वह समस्त द्रव्य इंद्राज्ञासे देवता पूर्ण करते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में तीन सौ अठासी करोड़ और अस्सी लाख सुवर्ण मुद्रायें दान में दीजाती हैं।
यहाँ पर कवि उस वार्षिक दान का वर्णन करता है कि भिखारी जैसे वेष में रहे हुए अर्थी प्रभु के पास से जब समृद्ध होकर घर आते हैं तब उनकी स्त्रीयाँ भी उन्हें पहचान नहीं सकी और उन्हें हम इसी घर के मालिक हैं इस लिए कशम दिला कर घर में घुसने देती हैं। उपहास करते कि देखो तुम्हारे घर में कोई अन्य
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