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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद |
॥ ५५ ॥
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रादि का पानी तथा कमल, क्षुल्लहिमवन्त, वर्षधर, वैताढ्य, विजय तथा वक्षस्कारादि पर्वतों से सरसों के पुष्प, सुगंधी पदार्थ आदि सर्व प्रकार की औषधियों को अच्युतेंद्र मंगवाता है। क्षीरसमुद्र से जल भरे घड़े छाती से लगाये हुए आते समय देवता ऐसे शोभते थे मानो संसारसमुद्र को पार करने के लिए ही घड़े छाती से लगाये हों । भावरूप वृक्ष को सींच कर उन्होंने अपनी आत्मा का मैल धो लिया ।
उस समय इंद्र के संशय को जानकर वीरप्रभुने दाहिने अंगूठे से चारों ओर से मेरुपर्वत को कंपायमान किया । इससे पृथ्वी धूजने लगी, शिखर गिरने लगे और समुद्र भी क्षोभायमान होगया । ब्रह्माण्ड को फोड़ डालें ऐसे शब्द होने पर क्रोधित होकर इंद्रने अवधि ज्ञान से जानकर प्रभुसे क्षमा माँगी । असंख्य तीर्थंकरों में से मुझे आज तक किसने भी अपने पैर से स्पर्श नहीं किया किन्तु प्रभु वीरने स्पर्श किया इस कारण मानो हर्ष के मारे मेरु पर्वत नाचने लगा । उसने विचार किया कि इस स्नात्रजल के अभिषेक से झरते हुए समस्त झरनेरूप मैंने हार पहने हैं तथा जिनेश्वररूपी मुकुट को धारण कर मैं आज सब पर्वतों का राजा बना हूँ। अब स्नात्र उत्सव के लिए इंद्रने सब को आदेश दिया - प्रथम अच्युतेंद्रने प्रभु का अभिषेक कराया। फिर अनुक्रम से बड़े से छोटोंने और अन्त में सूर्य और चंद्रने स्नात्र कराया। वहाँ पर कवि घटना का वर्णन करता है कि स्नात्र महोत्सव के समय अन्तिम तीर्थंकर के मस्तक पर श्वेत छत्र के समान शोभता हुआ, मुख पर चंद्रकिरणों के समूह समान शोभता हुआ, कंठ में हार के समान शोभता हुआ, समस्त शरीर पर चीनीचोले के समान शोभता हुआ इंद्रो
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पांचवां व्याख्यान.
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